चौथान से विदा हो गए ढोलसागर विद्या के महारथी भूरिया दास जी
चौथान समाचार (चन्दन सिंह गुसाईं, बची सिंह रावत) २७ जनवरी २०१९
चौथान में ढोलसागर के प्रख्यात ज्ञाता भूरियाराम दास जी अब नहीं रहे। 84 वर्षीय भूरियाराम जी ने रविवार 27 जनवरी को अंतिम साँस ली। सामान्य पहाड़ी पृष्ठभूमि में जन्मे भूरियाराम दास जी के पिता का नाम श्री मनीराम दास था। इनका जन्म चौथान पट्टी में स्थित तल्ली डडोली गांव में हुआ था। तीन भाइयों में सबसे छोटे भूरियाराम जी हंसमुख और मिलनसार स्वाभाव के थे।
पहाड़ी वाद्ययंत्र ढ़ोल को पराम्परिक शैली में बजाने में दास जी को महारत हासिल थी। इनकी शिक्षा के बारे में कम जानकारी उपलब्ध है। परन्तु ढ़ोल वादन की कला इनको विरासत में मिली और आप बचपन से सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक कार्यक्रमों में अपनी कला से सबको मंत्रमुग्ध कर देते थे।
चाहे डडोली से अष्टबै से हो या मंडाण या किसी की जागरी से हो, भूरियाराम जी की ढोल की थाप से सभी सम्मोहित कर देती थी। युवास्था से जीवन के अंतिम पड़ाव तक उनकी ढ़ोल की थाप लगातार बजती रही। उनकी कला के प्रशंसक चमोली और अल्मोड़ा जिले में भी थे और उनको देखने सुनने वाले भी भारी संख्या में उन तक पहुंच जाते थे।
उनके जाने से समूचे चौथान में शोक की लहर दौड़ रही है और इस अद्भुत कला को भी काफी क्षति पहुंची है जिसकी भरपाई करना नामुमकिन है। अब यह विद्या अब चौथान से कम हि लोगों के पास है। जब भी डडोली में अष्टबै होती रहेगी उनकी अलौकिक कला को जरूर याद किया जाएगा। ग्राम-पाटों से सुरेन्दरसिंह चौधरी उनको अपना गुरु मानते थे और उन्होंने इनसे ही ढोल-दमाऊ बजाने की कला सीखी थी।
दुःख की बात यह है कि संस्कृति के संवाहक ऐसे संगीतविदों को सरकार की ओर से ना ही कोई पहचान मिलती है ना ही कोई सम्मान। वीर चंद्र सिंह चौथान विकास समिति की सरकार से अपील है कि पारम्परिक पहाड़ी संगीत की कला को जीवित रखने के लिए ऐसे कलाकारों को समय रहते यथोचित मान सम्मान दिया जाए और नई पीढ़ी को भी पहाड़ी संगीत का ज्ञान कराने के लिए उचित योजना बनायी जाए।
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