पहाड़ सा अडिग नारायण गुसाईं का हौसंला
चौथान समाचार शनिवार
04 अप्रैल 2020
लीये सपने निगाहों में.......चला हूँ तेरी राहों में,.... जिंदगी आ रहा हूँ मैं......
परदेश से पहाड़ में जाने का सपना देखने वाला हर एक उत्तराखंडी इस गीत में सुकून और जुनून दोनों पाता है।
सच है दोस्तों पहाड़ पलायन किस्सा भी अब एक अजीब दास्ताँ जैसा है। कुछ कुछ शादी के लड्डू जैसा। जो परदेश में इसको झेल रहे हैं उनके लिए एक दुःस्वप्न बन गया है और जिन्होंने ये लड्डू नहीं खाया उनके लिए हसीन ख्वाब की तरह है।
एक ओर परदेश में विषम हालातों से जूझ रहे हज़ारों उत्तराखंडी अपने पहाड़ आने का सपना संजोएं हैं तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में उत्तराखंडी हर साल पहाड़ पलायन कर रहे हैं।
घर वापसी की बात सोचने, कहने वालों की संख्या बहुत है। पर चंद लोग ही शहर के मायाजाल से बचकर वापस आते हैं। यहाँ पर टिकने और सफल होने वालों की संख्या तो ऊँगली में गिन सकते हैं। और ऐसे ही एक विरले इंसान का नाम है..... नारायण सिंह गुसाईं।
अपनी चौथान पट्टी के नारायण सिंह गुसाईं, भरनों गांव से हैं। बड़ा परिवार, निर्धनता, पारिवारिक जिम्मेदारी जैसी मजबूरी जो अधिकतर पहाड़ी भाई झेलते हैं, नारायण सिंह का बचपन और युवाकाल भी इन कठिनाईयों से गुजरा है। पर उनकी सोच और हिम्मत उन्हें सबसे अलग करती है। नारायण सिंह ने जैसे तैसे आठवीं पास की और चौदह वर्ष की आयु में ही रोजी रोटी कमाने के लिए दिल्ली चले गए।
यहाँ एक प्राइवेट नौकरी में जीतोड़ मेहनत कर नारायण ने अपनी पारिवारिक की स्थिति को सुधारा। पर पिता के देहांत के बात परिवार के भरण पोषण का सारा बोझ उनके कन्धों पर आ गया। इस बीच छोटा भाई भी शहर में रोजगार के लिए आ गया। यहाँ दोनों भाई पैसे कमा बखूबी अपने जीवन और परिवार की जरूरतों को पूरा कर रहे थे। मिलकर गांव में अच्छा घर भी बना लिया, भाई बहनों की शादियां भी की। सब कुछ बढ़िया चल रहा था। एक हज़ार रूपये मासिक वेतन की नौकरी को 24 सालों में ईमानदारी लगन से तीस हज़ार रूपये मासिक स्थिति में पहुँचाया। पद भी बढ़ा। नाम भी मिला। पर हमेशा असंतुष्टि का भाव रहा और एक कमी सालती रही। पहाड़ से बिछोह की।
सोच थी शहर के मशीनी जीवन में, बेस्वाद खाने, गन्दी हवा, बासी पानी से अपने जीवन से खिलवाड़ करते हुए हम जो पंद्रह सोलह घंटे किसी मालिक, कम्पनी के लिए मेहनत करते हैं। उतना प्रयास अपनी जन्मभूमि में रहकर, अपने परिवार, पेड़, पानी, पहाड़ों के बीच जीकर करें तो नतीजा जरूर अच्छा होगा। पिछले कुछ सालों में नारायण सिंह का पहाड़ वापसी का लक्ष्य बन गया था। पर सबसे बड़ी चुनौती थी रोजगार की।
एक बड़ा दांव था, एक तरफ जमी जमाई नौकरी एक तरफ पहाड़ में अंजान भविष्य। ये दांव हर कोई नहीं खेल पाता। पर नारायण सिंह ने जोखिम लिया। लगभग एक साल पहले गांव आ गए। यहाँ भेड़, बकरी पाल रहे हैं और जैविक सब्जियां उगा रहे हैं। नेक नियति, सतत प्रयास और परमात्मा की कृपा से काम फल फूल रहा है। अच्छा खासा फायदा भी हो रहा है।
नारायण सिंह अपने प्रेरणा स्रोत इंद्र सिंह रमोला को मानते हैं जिन्होंने इन्हें स्वरोजगार करने के लिए सलाह और सहयोग दिया। पहाड़ सेवा की भावना से अपने गांव को प्लास्टिक डिस्पोजल और पॉलिथीन मुक्त करना दूसरा उल्लेखनीय प्रयास है जिसमें नारायण सिंह गुसाईं पूरी भावना से लगे हैं और इस काम के गांव में युवाओं की समिति भी बन गई है।
नारायण सिंह से बात की तो लगा जो हम सोचते हैं उसे कैसे इस युवा ने कर दिखाया। खुद नारायण भाई भी कहते हैं कि पहाड़ वापसी विषय का विचार सोशल मिडिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए। जब तक हम जोखिम लेकर जमीन में आकर नहीं जमते हैं कोई चमत्कार नहीं होने वाला है। खास तौर पर शहरों में शोषण और नारकीय हालातों से जूझते भाइयों को तो पहाड़ में पांव जमाना, शारारिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक नजरिये से कहीं बेहतर है।
पहाड़ वापस आने की सोच रखने वालों को भी नंदू भाई (उपनाम) यही कहना चाहते हैं कि किसी और के लिए जीजान लगाने से अच्छा है अपने लिए मेहनत करना और अपनों के लिए अपने पहाड़ में जीना। थोडा शहर जैसे भौतिक सुख सुविधा तो नहीं है पर अपने पहाड़ में अपने परिवार, प्रकृति के बीच रहने का जो सुकून है उसकी कीमत रुपयों में नाही लगाई जा सकती है नाही चुकाई जा सकती है।
चलो दगड़ियों लौटि आवा पहाड़ मा
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